दीक्षा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग और गुरु-शिष्य संबंध
दीक्षा का तात्पर्य, मूल स्वरूप क्या है, शिष्य को कब गुरु से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए, किन नियमों का पालन होना विशेष आवश्यक है, दीक्षा के क्या भेद हैं, ये प्रश्न निश्चय ही हर साधक के मन में बार-बार मंथन करते हैं, इन्हीं प्रश्नों का पूर्ण विवेचन पूज्य गुरुदेव से प्राप्त अमृत वचनों के आधार पर –
साधक और शिष्य का भेद निश्चय ही गहरा है, साधक के लिए कोई वन्धन नहीं है, वह जो कार्य करता है, एक प्रकार से अंधेरे मे हाथ-पांव मारने के समान ही है, क्योंकि उसके पास कोई प्रकाश स्रोत नहीं है, इसलिए शिष्य वही है जो सदाचारी हो, कर्म, मन, वाणी और धन से गुरु-सेवा करने के लिए इच्छुक हो, गुरु की आज्ञा का पालन करने वाला हो, गुरु के सामने अपने धन, विद्या, जाति का अभिमान न करने वाला हो, गुरु-भक्ति में और गुरु-आज्ञा मे अपना सब कुछ सौंप देने को हर समय तत्पर रहता हो, वही तो शिष्य है।
दीक्षा क्या है ?
दीक्षा गुरु की कृपा और शिष्य की श्रद्धा का संगम है, गुरु का आत्मदान और शिष्य का आत्म समर्पण ही दीक्षा है, दीक्षा का तात्पर्य गुरु द्वारा ज्ञान, शक्ति और सिद्धि का दान, और शिष्य द्वारा अज्ञान, पाप और दरिद्रता का नाश, शरीर कितना ही शुद्ध हो, यह आवश्यक नहीं कि मन भी उसी अनुपात में जागृत हो, दीक्षा का तात्पर्य मन की जागृति है ।
दीक्षा गुरु की ओर से आत्मदान, शक्तिपात है जो शिष्य के भीतर सुप्त शक्तियों को जागृत करने की प्रक्रिया है, साधना और सिद्धिया दीक्षा के माध्यम से ही शिष्य के भीतर चेतना की मूल शक्ति जागृत करती है, इसी कारण शिष्य वह स्थान प्राप्त कर सकता है, जो उसे साधना के द्वारा होना चाहिए ।
दीक्षा द्वारा गुरु शिष्य को अपने संरक्षण में लेकर उसके लिए क्या उचित है, इसका निर्णय करता है। उसके पूर्व जन्म की साधनाएं, संस्कार, दोष, तथा वर्तमान जीवन के दोष, बाधाएं जानकर उस केलिए उचित मार्ग स्पष्ट करता है।
दीक्षा के प्रकार
दीक्षा के कई भेद होते हैं, जो शिष्य के स्तर के अनुसार दी जाते हैं। मुख्य तीन प्रकार की दीक्षाएँ हैं:
शाक्त
शाक्त दीक्षा में शिष्य अपनी ओर से कुछ भी नही करता, गुरु शिष्य के अन्तरदेह मे प्रवेश कर कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर अपनी शक्ति से ही शिव और शक्ति का मिलन करा देते है, यह दीक्षा तो गुरुदेव अपने परम शिष्यों को ही प्रदान करते है, जो शिष्य साधना के पथ वर बहुत आगे बढ़ गया हो ।
शांभवी
इसमें गुरु एवं शिष्य आमने-सामने वैठते है, गुरु अपनी प्रसन्न दृष्टि से शिष्य को स्पर्श करते हुए उसके भीतर शिव और शक्ति के चरण स्थित कर देते है, शिष्य समाधिस्थ रहते हुए समाधिस्थ हो जाता है और उसकी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है, यह दीक्षा श्रीगुरु अपने शिष्य के स्तर को परख कर ही प्रदान करते है।
मांत्री
मांत्री दीक्षा ही सामान्य साधक के लिए आवश्यक दीक्षा है, जिसमें गुरुदेव शिष्य को मंत्र प्रदान करते हैं, शिष्य को अनुष्ठान पूजन इत्यादि समपन्न करना होता है, इस दीक्षा से ही साधक को शक्तिपात की पात्रता प्रारम्भ होती है और उसके द्वारा किये गये मंत्र जप, अनुष्ठान उसे उचित सिद्धि दिलाते है, गुरुदेव अपने भावनात्मक शिष्य को प्रथम रूप में यही दीक्षा दे कर उसकी साधना का श्रीगणेश करते है, और यह आवश्यक भी है ।
आणवी दीक्षा के दस भेद होते हैं, जिन्हें शिष्य के समझना चाहिए
स्मार्ती
जब गुरु और शिष्य भिन्न-भिन्न स्थान पर स्थित हो, तो यह दीक्षा सम्पन्न की जाती है, निश्चित समय पर शिष्य स्नान कर अपने स्थान पर बैठता है और गुरुदेव अपने स्थान पर शिष्य का स्मरण करते हुए उसके दोषों का विश्लेषण करते हुए उन को भस्म कर, सिद्धि के मार्ग पर उसे स्थित कर देते हैं ।समें गुरु शिष्य का दूर से ध्यान करते हैं और उसके दोषों को नष्ट कर उसे सिद्धि का मार्ग दिखाते हैं।
मानसी
गुरु शिष्य को मानसिक रूप से शिव और शक्ति से परिचित कराते हैं।
योगी
इस दीक्षा में गुरु शिष्य के शरीर में प्रवेश कर योग तत्व प्रदान करते हैं।
चाक्षुबी
गुरु शिष्य को करुणामयी दृष्टि से देखते हैं और शिष्य के दोषों को समाप्त करते हैं।
स्पार्शिकी
गुरु अपने हाथों से शिव मंडल बना कर शिष्य को स्पर्श करते हैं, जिससे शक्ति जागृत होती है।
वाचिकी
गुरु शिष्य को मंत्र प्रदान करते हैं, ध्यान से और विधिपूर्वक मंत्र जपने के लिए प्रेरित करते हैं।
मांत्रिकी
गुरु मंत्र की विशेष क्रियाएँ करते हुए शिष्य के शरीर में मंत्र का संक्रमण करते हैं।
होत्री
यज्ञ में बैठ कर गुरु शिष्य को दीक्षा प्रदान करते हैं, जिससे आध्यात्मिक शक्ति जागृत होती है।
शास्त्री
गुरु शिष्य की भक्ति और सेवा को देखकर शास्त्रों के अनुसार दीक्षा देते हैं।
अभिषेचिका
गुरु शिष्य के सिर पर अभिषेक करते हैं, जिससे शिष्य की शक्ति और दिव्यता जागृत होती है।
निष्कर्ष
दीक्षा एक साधारण प्रक्रिया नहीं है; यह शिष्य के जीवन को आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में एक नया मोड़ देती है। यह शिष्य की आंतरिक शक्तियों को जागृत करती है, उसे सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है और उसे गुरु की कृपा से सिद्धि की ओर अग्रसर करती है।