गुरु पादुका गुरुत्व का प्रतीक और साधना में भूमिका
शास्त्रों के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल २ को “गुरुत्व दिवस” या “गुरु पादुका दिवस” मनाया जाता है। एक साधक या शिष्य के जीवन में ‘गुरु
पादुका दिवस’ का सर्वाधिक महत्व है, और वह पूर्ण श्रद्धा, भावना, एवं चिन्तन के साथ “गुरु पादुका दिवस” को सपरिवार सम्पन्न करता है।
गुरु पादुका
गुरु की पादुका साक्षात् गुरुमय होती है,क्योंकि
पृथिव्या यानि तीर्थानि तानि तीर्थानि सागरे । सागरे सर्व तीर्थानां गुरुस्य दक्षिणे पदे ।।
गुरु चरण जल से स्नान कर समस्त तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त होता है, इसलिए गुरु के चरणों में धारण की हुई खड़ाऊ या पादुका स्वयं गुरु का
साक्षात स्वरुप बन जाती है। गुरु पादुका की उपस्थिति साक्षात् गुरु की उपस्थिति ही मानी गई है। गुरु पादुका स्तवन मूल रूप में गुरु स्तवन ही
है, इसीलिए पूरे भारत वर्ष में जितना महत्व गुरु पूर्णिमा का है, उससे भी ज्यादा महत्व “गुरु पादुका दिवस” का है।
भगवान शिव ने पार्वती को समझाते हुए कहा है, कि मात्र गुरु पादुका पूजन करने से साधक की सोलह कलाएं स्वतः विकसित होने लग जाती
है, ये सोलह कलाएं निम्न प्रकार से कही गयी है १ मूलाधार, २ स्वाधिष्ठान, ३ मणिपुर, ४ विशुद्ध, ६- आज्ञा, ७ बिन्दु, ८ कला पद, ९ –
निर्वाधिका, १०-अर्धचन्द्र, ११- नाद, १२ नादान्त, १३ शत्ति, १४ – व्यापिका, १५ समना, ११६ उन्मना |
इन सोलह कलाओं का विकास और कुण्डलिनी जागरण होकर जब कुण्डलिनी उर्ध्वगामी होती है, तब स्वतः साधक की ‘खेचरी मुद्रा’ प्रारम्भ
हो जाती है और ऐसा होने पर वह शिवात्मक गुरु शिष्य से संबोधित हो जाती है ।
शिष्य को ‘गुरु पादुका’ प्राप्त कर अपने पूजा स्थान में सम्मान पूर्वक स्थापित कर देना चाहिए, और यह अहसास करना चाहिए कि यह खड़ाऊ
या वे पादुकाएं साक्षात ब्रह्ममय गुरु ही सशरीर उपस्थित है।
साधक “गुरु पादुका दिवस” के दिन पूर्ण श्रद्धा के साथ स्नान कर शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण करे, और उत्तर दिशा की ओर आसन विछा कर अपनी
पत्नी के साथ वा स्वयं बैठें, सामने श्रेष्ठ लकड़ी की तख्ते पर पीला वस्त्र विछा कर उस पर गुरु पादुका स्थापित करें, और फिर अपने सामने पूजन
सामग्री रख कर गुरु पादुका पूजन कार्य सम्पन्न करें ।
पादुका चिन्तन
साधक या शिष्य अपने दोनों हाथ खड़ाउओं पर रखता हुआ निम्न प्रकार से चिन्तन-उच्चारणा करे –
ॐ गुरुभ्यां नमः ॐ परम गुरुभ्यो नमः
ॐपरात्पर गुरुभ्यो नमः
ॐ परमेष्ठि गुरुभ्यो नमः
ॐ गणपतये नमः
ॐ मूल प्रकृत्यै नमः
ॐ मण्डूकाय नमः
ॐ मूलाधारर्य नमः
ॐ कालाग्नि रुद्रायनमः
ॐ कूर्माय नमः
ॐ आधार शक्तये नमः
ॐ आनन्दाय नमः
ॐ अनन्ताय नमः
ॐ पृथ्वियै नमः
ॐ सुधार्णवाय नमः
ॐ मणिद्विपाय नमः
ॐ कल्पवृक्षाय नमः
ॐ चिन्तामणि गृहाय नमः
ॐ हेमपीठाय नमः
इसके वाद वाई तरफ चावल की ढ़ेरी बना कर उस पर एक गोल सुपारी रख कर उसे भैरव मान कर उसकी संक्षिप्त पूजा करें, जिससे कि किसी
प्रकार का कोई विघ्न उपस्थित न हो, पूजन के बाद भैरव के सामने हाथ जोड़कर उच्चारण करें –तीक्ष्णदंष्ट्र महाकाय कल्पान्ते दहनोपम् । भैरवाय नमस्तुभ्यं अनुज्ञा दातुमर्हसि ।। इसके बाद दिशा बंधन करें, फिर आसन पूजन करें –
आसन पूजन
इसके वाद अपने आसन को हटा कर उसके नीचे कुंकुम से त्रिकोण बनाये, और उस पर पुनः आसन विछा दें, फिर आसन पर जल छिड़कते हुए
निम्न उच्चारण करें-
ॐ क्षेत्रपालाय नमः । ॐ पृथ्वीत्यासन-मंत्रस्य मरुपृष्ठ ऋषिः। सुतलं छन्दः । कूर्मी देवता। आसने विनियोगः । ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवित्वं विष्णुना घृता । त्वं च धाग्य मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ।।
इसके बाद जो आसन बिछा हुआ है, उस पर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए आसन पर केसर की पांच विन्दिया लगावे जिससे कि आसन
सिद्धि हो सके ।
ॐ पृथ्विव्र्व्य नमः ॐ अनन्ताय नमः ॐ कूर्माय नमः ॐ विमलाय नमः ॐ योगपीठाय नमः
इसके बाद खड़ाऊ के सामने पांच चावल की ढेरियां बनावें, और उस पर एक एक गोल सुपारी रख कर केसर की बिन्दी लगावे तथा उच्चारण करें- ॐ गुं गुरुभ्यो नमः ॐ पं परम गुरुभ्यो नमः ॐ पं परात्पर गुरुभ्यो नमः ॐ पं परमेष्ठि गुरुभ्यो नमः ॐ पं परापर गुरुभ्यो नमः
शरीर गुरु स्थापन प्रयोग
इसके बाद दहिने हाथ से संबंधित अंगों को स्पर्श करते हुए गुरु को अपने पूर्ण शरीर में समाहित करें –
ॐ कूर्माय नमः ॐ वैराग्याय नमः ॐ आधार शक्तये नमः ॐ अनैश्वर्याय नमः ॐ पृथिव्यै नमः ॐ अनन्ताय नमः ॐ धर्माय नमः ॐ
सर्वतत्वात्मकाय नमः ॐ ज्ञानाय नमः ॐ आनन्दकन्द कन्दाय नमः ॐ सवित्रालाय नमः ॐ ऐश्वर्याय नमः ॐ विकारमयकेशरेभ्यो नमः ॐप्रकृतमयपत्रेभ्यो नमः ॐ पंचाशर्णबीजाढ्यकर्णिकायै नमः
इस प्रकार अपने शरीर में गुरु को स्थपित कर अपनें शरीर की संक्षिप्त पूजा करें, सिर पर जल छिड़के सिर के मध्य में केसर की बिन्दी लगावे,
हृदय पर केसर का लेप करें, और प्रसन्नता अनुभव करें कि मेरे शरीर के रोम रोम में पूज्य गुरुदेव स्थापित हुए है, जिससे कि मेरी कुण्डलिनी
स्वतः जागृत होने लगी है ।
इसके बाद खड़ाउ के दाहिनी ओर एक दूसरे लकड़ी के वाजोट पर कलश स्थापित करें, ओर कलश के चारो ओर चारो दिशाओं की ओर केसर
की बिन्दी लगाते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करे ।
ॐ पूर्वे ऋऋावेदाय नमः ॐ उत्तरे यजुर्वेदाय नमः ॐ पश्चिमे अथर्व वेदाय नमः ॐ दक्षिणे साम वेदाय नमः
इस प्रकार कलश में चारो वेदों की स्थापना करे और संक्षिप्त पूजर करे
कलश के पास में शंख स्थापित करे, और उसका पूजन करे, शंख के पास ही घण्टा स्थापित करे, और उसका भी पूजन करते हुए निम्न उच्चारण करे
आगमार्थं तु देवानां गमनार्थं तु रक्षसाम् । घण्टानादं प्रकुर्वीत पश्चाद् घण्टा प्रपूजयेत ।।
फिर कलश के आगे बारह चावल ढेरियां बनावे और उस पर एक एक सुपारी रख कर निम्न देवताओं की स्थापना करें ।
१-ॐ कालाग्नि रुद्राय नमः
२-ॐ कूर्मायै नमः
३-ॐ पृथिव्यै नमः
४-ॐ धर्माय नमः
५-ॐ ज्ञानाय नमः
६-ॐ वैराग्याय नमः
७-ॐ ऐश्वर्याय नमः
८-ॐ राग्याय नमः
९-ॐ अनन्ताय नमः
१०-ॐ सर्वतत्वात्मकाय नमः
११-ॐ आनन्दमयकन्दाय नमः
१२-ॐ प्रकृतिमय पत्रेभ्यो नमः
खड़ाउ – विनियोग
ॐ अस्य श्री पादुका मन्त्रस्य दक्षिणामूर्ति ऋषिः गायत्रीछन्दः श्री गुरु देवता प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।
इसके बाद खड़ाउ में गुरु प्राण प्रतिष्ठा करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करें ।
पादुका गुरु मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः हंसः शिवः सोहं हंसः स्वरूप निरुपणहेतवे श्री गुरुवे नमः
इसके बाद साधक न्यास करे –
करन्यास
ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ॐ हूं मध्यमाभ्यां नमः ॐ हैं अनामिकाभ्यां नमः ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॐ ह्रः करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः
हृदयादि न्यास
ॐ ह्रां हृदयाय नमः ॐ ह्रीं सिरसे स्वाहः ॐ हूं कवचाय हुं ॐ है नेत्रत्रयाय वौषट ॐ ह्रौं शिखायै वषट ॐ ह्रः अस्त्राय फट्
फिर गुरु ध्यान करे ।
महा-रोगे महोत्पाते महा-देवी महा-मये । महा-पदि महा-पापे स्मृता रक्षति पादुका ।।
तेनाधीनं स्मृतं ज्ञानं पुष्पं पत्तं च पूजितं । जिह्वायां वसंते यस्य श्री परा-पादुका-स्मृतिः ।।
भोग भोगार्थिना ब्रह्म-विष्णवी-पद कांक्षिणाम । भक्ति रेव गुरी देवि “नान्यः पंथा” इति श्रुतिः.
इसके बाद २ अन्य पात्रों में परम गुरु और परमेनिष्ठ गुरु की स्थापना करें, स्थापना में पात्र में चावलों की ढ़ेरी बनाकर उस पर सुपारी रख कर उन्हे परम गुरु और परमनिष्ठ गुरु मानकर उपरोक्त प्रकार से ही न्यास करे फिर उनका ध्यान करें ।
परम गुरु ध्यान
गुरु भक्ति-विहीनस्य तपो विद्या कुल व्रतम् । सर्व नश्यन्ति तत्रैव भूषण लोक रंजनम् ।।
गुरु भवत्यग्निना सम्यग् दृग्ध्या सर्व-गतिदंसः श्वपचो पि परैः पूज्यो न विद्वानपि नास्तिकः ॥
परमेष्ठि गुरु ध्यानगुरुः पिता गुरुर्माता गुरुर्देवो गुरुर्गति ।
शिवे रुष्टो गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ।।
पादुका लय पूजन
इसके बाद साधक पादुका लय पूजन करें, जो सामने दोनों पादुकाएं स्थापित की है, दोनों पादुकाओं पर कुंकम से त्रिकोण वनावे, और सूर्य-
द्वादस कलाओं में से छः कलाओंकी स्थापना वाम पादुका में तथा छः कलाओं की स्थापना दाहिनी पादुका में स्थापित करें –
वाम पादुका कला स्थापन
१-ॐ तपिन्यै नमः २-ॐ तापिन्यै नमः ३-ॐ ज्वालिन्यै नमः ४-ॐ रुच्यै तमः ५-ॐ सूक्ष्मायै नमः ६-ॐ भोगिन्यै नमः
दाहिनी पादुका कला स्थापन
१-ॐ विश्वायै नमः २-ॐ धूम्रायै नमः ३-ॐ मरीच्यै नमः ४-ॐ बोधिन्यै नमः ५-ॐ धारिण्यै नमः ६-ॐ क्षमायै नमः
इन कलाओं की स्थापना से दोनों पादुकाओं में पूर्ण सूर्य मण्डल स्थापित हो जाता है, इसके बाद दोनों पादुकाओं पर कलश में से जल (अमृत)
छिड़कते हुए निम्न सोलह चन्द्र कलाओं की स्थापना करें, जिससे कि इन पादुकाओं में चन्द्र कलाओं के साथ साथ अमृत तत्व का प्रादुर्भाव हो
सके ।
१-ॐ अमृतायै नमः २-ॐ मानदायै नमः ३-ॐ पूषायै नमः ४-ॐ तुष्टयै नमः ५-ॐ पुष्टयै नमः ६-ॐ रत्यै नमः ७-ॐ धृत्यै नमः ८-ॐ शशिन्यै
नमः ९-ॐ चण्डिकायै नमः १०-ॐ काल्यै नमः ११- ॐ ज्योत्स्नायै नमः १२-ॐ श्रियै नमः १३-ॐ प्रीत्यै नमः १४-ॐ अंगदायै नमः १५-ॐ
पूर्णायै नमः १६-ॐ पूर्णामृतायै नमः
इस प्रकार करने के बाद बांये हाथ में केसर से चावल रंग कर दाहिने हाथ से थोडे थोडे चावल दोनों पादुकाओं पर डालते हुए निम्न उच्चारण
करें
१-मध्ये श्री कृष्म आवाहयामि स्थापयामि २-दक्षिणे वासुदेवं आवाहयामि स्थापयामि ३-पश्चिमे अनिरुद्धाय नमः आवाहयामि स्थापयामि
४-पूर्वे वैशंपायनाय नमः आवाहयामि स्थापयामि ५-उत्तरे जैमिन्यै नमः आवाहयामि स्थापयामि
इसके बाद जिस पात्र में खड़ाउ हो वह पात्र अपने सिर पर रख कर दोनों हाथों में लेकर साधक निम्न प्रकार से उच्चारण करें –
१-ॐ श्री शंकराचार्याय नमः आवाहयामि स्थापयामि २-ॐ विश्वरूपाचार्याय नमः आवाहयामि स्थापयामि ३-ॐ पद्यापादाचार्याय नमः
आवाहयामि स्थापयामि ४-ॐ हस्तामलकाचार्याय नमः आवाहयामि स्थापयामि ५-ॐ त्रोटकाचार्याय नमः आवाहयामि स्थापयामि ६-ॐ
दत्तात्रेयाय नमः आवाहयामि स्थापयामि ७-ॐ जीवन मुक्ताय नमः आवाहयामि स्थापयामि ८-ॐ नारदं वामदेवं कपिलं आवाहयामि
स्थापयामि ।
इसके बाद खड़ाउ पर पुष्प समर्पित करते हुए निम्न उच्चारण करे –
१-ॐ गुरवे नमः आवाहयामि स्थापयामि २-ॐ परम गुरवे नमः आवाहयामि स्थापयामि ३-ॐ परात्पर गुरवे नमः आवाहयामि स्थापयामि
४-ॐ परमेष्ठि गुरवे नमः आवाहयामि स्थापयामि ५-ॐ परम गुरवे नमः आवाहायामि स्थापयामि
इसके बाद दोनों हाथों मे पुष्प, अक्षत, कुंकुम, पुष्प माला लेकर पादुका के ऊपर समर्पित करते हुए उच्चारण करें –
१-ॐ सर्वशास्त्रार्थतत्वज्ञं निखिलेश्वरानन्दाय आवाहयामि स्थापयामि २-ॐ परमानन्दरुपेण स्वामी सच्चिदानंद आवाहयामि स्थापयामि ३-ॐ
ब्रह्मण्य रूपेण वेदव्यासाय आवाहयामि स्थापयामि ४-ॐ पूर्णत्व प्रदाय चतुर्मखु ब्रह्मा आवाहयामि स्थापयामि ।
सूक्ष्म गुरुतत्व मंत्र
सर्वथा गुप्त और दुर्लभ द्वादशार्ण सरसी रुह के रूप में जो गुरु मंत्र के बारह वर्ण है, वे निम्न है जो कि ब्रह्माण्ड के गुरुओं का प्रतिनिधित्व करते है
साधक को स्फटिक माला से चार माला निम्न ब्रह्माण्ड गुरु मंत्र की जपनी जाहिए ।
॥ स ह फ्रें ह सक्षम लव र यू म् ॥
इसमें प्रथम द्वादश वर्ण है अंतिम म् “वाग्भव” बीज है, इस प्रकार यह द्वादश वर्ण युक्त मंत्र तुरन्त कुण्डलिनी जागरण में पूर्ण रूप से सहायक है।
यदि साधक पादुका पूजन कर उपरोक्त गुरु मंत्र (ब्रह्माण्ड गुरु मंत्र) का जप करता है, तो निश्चिय हीं उसकी कुण्डलिनी और सहस्त्रार जागृत
होता है, यह प्रमाणिक वचन है । इसके बाद ‘गुरु पादुका पंचक’ का मधुरता के साथ पाठ करें।
पूर्व जन्म कृत दोष निवारणार्थ